निर्मल वर्मा का उपन्यास " वे दिन"!
अधिकांश भारतीयों के मन में यूरोप की को छवि है वो ब्रिटेन के इर्द गिर्द
केंद्रित है। कुछ बोहेमियन avantgardist
प्रकृति के लोग फ्रेंच संस्कृति से परिचित हैं। और कुछेक लोग जर्मन,
स्पेनिश या इटालियन परंपराओं की जानकारी रखते हैं। निर्मल वर्मा अपने यूरोप
प्रवास के दौरान अधिकतर प्राग मे रहे ( कुछ समय आइसलैंड में भी)। ये यूरोप
कि तथाकथित underbelly है जिसे देखने के लिए एक आम भारतीय पाठक को श्रम
करना पड़ता है, यूरोप को पलटना और टटोलना पड़ता है। यूरोप के इस रूप को
पढ़ना, समझना एवं उससे अभिभूत होने का मेरा ये पहला अनुभव था।
हिंदी साहित्य में उस समय "नई कहानी" के पौधे लग रहा थे और निर्मल वर्मा उसके एक प्रमुख बागबान थे। “वे दिन” में यूरोप को परंपरागत तरीके से दर्शाया गया है, पर हिंदी उपन्यास की दृष्टिकोण से ये एक " परंपरा विरोधी" उपन्यास था। वायक्तिवाद, प्रवासी होने की संवेदना, अकेलेपन की वेदना जैसे पहलू उस समय के हिंदी उपन्यासों में देखने को नहीं मिलते हैं। आधुनिक मनुष्य की अस्तित्वगत भय (existential dread) का पहला स्पर्श मुझे इसी उपन्यास के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद ये एक भारतीय उपन्यास है, हर अर्थ में। परिधि यूरोप के अनेक नगरों में फैली हुई है पर उपन्यास के केंद्र में भारतीय मान्यताएं और आस्थाएं ही हैं।
निर्मल वर्मा की शैली ने अभिव्यक्ति कि नई परंपरा शुरू की जो आज स्थापित हो चुकी है। भाषा शैली और शब्द चयन पश्चादृष्टी से देखें तो प्रयोगात्मक है और अपने समय से आगे भी। सामाजिक परिवेश एवं परिपेक्ष को समेटे हुए एक कोरी निजी अभिव्यक्ति। नए प्रतीक और बिम्ब, जो निर्मल वर्मा को अलग बनाती है, इसका पदार्पण इन्हीं उपन्यासों से हुआ। एक ओर व्यक्तिगत अनुभूति और सामाजिक विवरण में समन्वय है तो दूसरी ओर संघर्ष और संतोष के बीच सामंजस्य भी। सीमित संसाधनों से जूझते हुए अभाव की गरिमा है तो आकांक्षाओं कि संपन्नता भी है। प्राग स्प्रिंग से पहले का प्राग है तो इसमें इतिहास जगह जगह झांकता रहता है, पर अदर्श्य रहकर, और हस्तक्षेप तो बिल्कुल भी नहीं करता।
हिंदी साहित्य में उस समय "नई कहानी" के पौधे लग रहा थे और निर्मल वर्मा उसके एक प्रमुख बागबान थे। “वे दिन” में यूरोप को परंपरागत तरीके से दर्शाया गया है, पर हिंदी उपन्यास की दृष्टिकोण से ये एक " परंपरा विरोधी" उपन्यास था। वायक्तिवाद, प्रवासी होने की संवेदना, अकेलेपन की वेदना जैसे पहलू उस समय के हिंदी उपन्यासों में देखने को नहीं मिलते हैं। आधुनिक मनुष्य की अस्तित्वगत भय (existential dread) का पहला स्पर्श मुझे इसी उपन्यास के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद ये एक भारतीय उपन्यास है, हर अर्थ में। परिधि यूरोप के अनेक नगरों में फैली हुई है पर उपन्यास के केंद्र में भारतीय मान्यताएं और आस्थाएं ही हैं।
निर्मल वर्मा की शैली ने अभिव्यक्ति कि नई परंपरा शुरू की जो आज स्थापित हो चुकी है। भाषा शैली और शब्द चयन पश्चादृष्टी से देखें तो प्रयोगात्मक है और अपने समय से आगे भी। सामाजिक परिवेश एवं परिपेक्ष को समेटे हुए एक कोरी निजी अभिव्यक्ति। नए प्रतीक और बिम्ब, जो निर्मल वर्मा को अलग बनाती है, इसका पदार्पण इन्हीं उपन्यासों से हुआ। एक ओर व्यक्तिगत अनुभूति और सामाजिक विवरण में समन्वय है तो दूसरी ओर संघर्ष और संतोष के बीच सामंजस्य भी। सीमित संसाधनों से जूझते हुए अभाव की गरिमा है तो आकांक्षाओं कि संपन्नता भी है। प्राग स्प्रिंग से पहले का प्राग है तो इसमें इतिहास जगह जगह झांकता रहता है, पर अदर्श्य रहकर, और हस्तक्षेप तो बिल्कुल भी नहीं करता।
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